Saturday, October 17, 2009

दिवाली

रोशनी तेरे दिये की है मेरे अंदर
रंग तेरी अदाओं से चुराया है मैंने
हंसी...तेरी फुलझडी है
और गुस्सा रास्ते में रखा सुतली बम...
तेरे दीदार से बेचैनी, उड़ जाती है रॉकेट सी
तुझसे मिलने को ही... दिवाली कहते होंगे
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Thursday, September 3, 2009

इंटरनेट में डूबा रहता है वो...

बारिश में भीगे हुए उसे अरसा हो गया
इंटरनेट में डूबा रहता है वो
उसे उतना ही आता है
जितना गूगल को ....
चैटिंग, कट, कॉपी, पेस्
पर करता है समय वेस्
शाम को रात बनते देखना भूल गया वो
उसे उतना ही आता है, जितना गूगल को...
खुद हो जाता है बीमार
पर कम्प्यूटर में एंटीवायरस हमेशा तैयार
खाना कई बार कर देता है डिलिट
और इंटर होते रहते है पोस् ब्‍लॉग पर
नेटियाने का गुरूमंत्र उससे ले लो
उसे उतना ही आता है, जितना गूगल को

Wednesday, July 29, 2009

ढ़ाई सेंटीमीटर द्रविड़ चाहिए

भड़क सकती है शक्कर, हिंदी अख़बार नवभारत के व्यापार पेज पर यह हेडिंग पढ़ा। भाव तेज होने पर मीठीशक्कर भड़क सकती है, यह सोचा था। इस बात के बहाने कुछ पुराने दिन याद गए। एक सुबह अख़बार केऑफि में स्पोर्ट्स डेस् के सबएडिटर को संपादक की डांट पड़ रही थी, उसने हेडिंग में रौंदा शब् का इस्तेमालकिया था- फलां टीम ने फलां टीम को रौंदा। ऐसा लगा जैसे हारी टीम पर जीत गई टीम ने बुलडोजर चला दिया हो।

एक और शब् बेहद प्रचलित है काला दिन, कहीं कोई बुरी घटना हो तो इसे चिपका दो। कुछ बुरा हुआ है तो इसमेंशुक्रवार, गुरूवार का क्या दोष। मध्यप्रदेश से निकलने वाले अख़बार राजएक्सप्रेस में अवधेश बजाज ग्रुप एडिटरथे। सुबह मीटिंग में काम तय होने के साथ दूसरे अखबारों से तुलना और समीक्षा होती। अकसर कई चापलूस अपनेअख़बार की तारीफ करने के लिए पीट दिया, पछाड़ दिया बोलने लग जाते। उन पर चुटकी लेते बजाज जी ने एकदिन बताया कि भोपाल में एक शख़्स मीटिंग में कहते हैं, साहब.....आज अख़बार खड़ा हो गया। मैं आज तक समझनहीं पाया कि अखबार खड़ा कैसे होता है.....फि कुछ देर ठहाके लगते। हालांकि खड़ा शब् कहीं मायने भी रखता है, इसी अख़बार के भोपाल संस्करण में देवेश कल्याणी ‍‍ ‍ ‍‍‍‍‍ ‍ ‍‍‍ ‍ ‍‍‍‍
थे, वे रात को सेंट्रल डेस् के लोगों में जोश भर देते। एक रातराहुल द्रविड़ की ख़बर देख उनकी आंखों में चमक आई, अपने चिरपरिचित अंदाज में चुटकी बजाते बोले.....ढ़ाईसेंटीमीटर द्रविड़ चाहिए, जल्दी लाओं और उसे दाई ओर खड़ा करो। वहां उनका आशय फोटो को वर्टिकल लगाने सेथा। दूसरे दिन अख़बार खड़ा (माफ कीजिएगा) भी हो गया।

कला संस्कृति पर लिखने वाले अरविंद अग्निहोत्री किसी बुजुर्ग कलाकार के बीमार होने पर पूरा पेज तैयार करलेते, बिस्मिल्लाह खान की मृत्यु के एक महीने पहले ही उन्होंनें उन पर पेज तैयार कर लिया गया था। ख़बरों केकाम में शब् बड़े मायने रखते हैं.... अमर उजाला के लखनऊ संस्करण में लीड (मुख् ख़बर ) को बुलबुला कहतेहैं। वहां बुलबुला तैयार करना, एक जुमला है। इसके शाब्दिक अर्थ में जाए तो मीडिया की हालिया स्थिति समझीजा सकती है बुलबुले की तरह ख़बरों में हवा भरी होती है, इसी की तरह अधिकतर ख़बरों की उम्र बेहद कम है।न्यूज चैनल में भी पीस टू कैमरा (ख़बर के आखिर में रिपोर्टर जब पिक्चर में आता है) में आपने कई बार सुनाहोगा, आने वाला समय ही बताएगा कि ऊंट किस करवट बैठेगा या क्या होगा ये तो समय ही बताएगा, समय सबबता ही देगा तो मैं चैनल क्यों देख रहा हूं। ‍‍ ‍ ‍

Saturday, July 4, 2009

सरकती जाए आहिस्‍ता-आहिस्‍ता


हर तरफ वेस्
की नकल का असर है, कॉलेज कैम्पस में लड़के और यहां तक कि लड़कियां भी कमर से सरकती जींस पहने नजर आती हैं। पूछो तो जवाब होता है-ये स्टाइल का मामला है। कुछ लोग ब्रांड खाते हैं, पीते हैं, पहनते हैं, बाकी जगह तो ब्रांड दिख जाता है लेकिन अंडर गारमेंट का ब्रांड दिख पाने का दर्द इन्हें सताता रहता है। इस दर्द से निजात पाने के लिए वे लो वेस् जींस का मरहम लगाते हैं।


कॉलेज के स्
टाइलिश छोरे तो दोनों हाथ ऊपर कर, फि पैर का अंगूठा छूने वाली एक्सरसाइज करके, जब मनचाहा अंदर की बात बाहर करते रहते हैं। लड़कियां भी किसी मामलें में लड़कों से पीछे नहीं रहना चाहती, इसलिए वे 28 की कमर में 30 की जींस खरीद लाती हैं। दरअसल इसकी खोज अंगूठा चूसने वाले बच्चें से हुई। जिसकी आदत छुड़ाने के लिए उसे ढ़ीला-ढ़ाला पैंट पहनाया गया था। वह तो पैंट को संभालता रहा लेकिन जेनेरेशन नेक्सट उसे सरकाने में लगी है।


यूथ जीरो और जिरोइन बनने में लगे हैं, ऐसे में हैंगर में टंगी जींस, बेहतर नजर आती है। कुछ भी सरके, निगाह
और दिमाग नहीं सरकना चाहिए, नहीं तो बात बिगड़ सकती है। सरकन से हमेशा खतरा रहता है, गठबंधन सरकार को समर्थन सरकने का खतरा, खिलाडि़यों को रैंकिंग से सरकने का खतरा रहता है। मुटिया गए लोग भी लो वेस् जींस पहनकर भ्रम में जीते हैं कि अभी मोटापे से दूर है क्यों कि सरकन जारी है।


एक आंटी ने जब ऐसे बंदे-बंदियों को देखा तो रिएक्
शन था - मुओं को शरम नहीं आती बदन ढ़कने के लिए कपड़े पहनते है या बदन दिखाने के लिए। हाई सोसाइटी का यूथ हाई दिखने के लिए लो पहन रहा है। खाता भी है तो लो कैलोरी फूड। वैसे भी कलयुग में देने का जमाना नहीं रहा, सब लेने में लगे है तभी तो नया मंत्र आया है.....लो।

Thursday, July 2, 2009

मियां-मियां राजी तो......


बचपन में साइंस टीचर ने बताया था किचुंबक के विपरीत ध्रुव आपस में आकर्षितहोते हैं और एक समान ध्रुव पास लाने पर दूरजाते हैं। यहीं फंडा बाद में इंसानी जात, मर्दऔर औरत में भी लागू होता समझ आया।फि विदेशों में होने वाले समलैंगिक रिश्तों केकिस्से सुने, आसपास इसके मौजूद होने कीआहट भी महसूस की। अब दिल्ली हाईकोर्ट नेवयस्कों के बीच गे और लेस्बियन रिश्तों कोजायज करार दिया है।


इन रिश्तों की पहले से मौजूदगी के बावजूद इस ख़बर ने दिमाग की बत्ती जला दी है। अब गर्लफ्रेंड अपने बॉयफ्रेंडको किसी लड़की से बात करने पर जितना शक करेगी, उतना ही शायद देर तक दोस् के साथ रहने पर करने लगे।इस बदलाव से मुहावरे भी बदलेंगे, नया मुहावरा होगा मियां-मियां राजी तो क्या करेगा काजी। एक तरफ तोअपनी मर्जी से जीने का तरीका है यह, तो दूसरी ओर कुदरत के नियम को बदल ड़ालने की जुर्रत भी है।
ऐसे मुद्दों से जुड़ा आदमी बेजुबान है, धर्म के ठेकेदार विरोध में आवाज उठा रहे है तो सेलिना जेटली (अभिनय मेंअसफल) गे लोगों की स्वयंभू ठेकेदार बन गई है।

विज्ञान कहता है कि समलैंगिक संबंध एड्स को बढ़ाएंगे, ऐसे जोड़े बच्चें पैदा नहीं कर पाएंगे। इन तर्कों के बीच हमकुछ अनसुना तो नहीं कर रहे, सच यह भी है कि खुसफुसाहट के बीच गे की बात होती रही लेकिन ये आवाज तोमुखर हुई, समाज ने इसे ध्यान से सुनने का साहस किया।

दिल्ली के इस फैसलें के बावजूद समाज से नजरें मिलाना, इनके लिए आसान नहीं है। नजरें मिलें तो झुकें नहीं, ऐसी हसरत के लिए दिल्ली अभी दूर है।
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Monday, June 15, 2009

चांद के बहाने


कहानी फि‍ल्‍मी है, शादीशुदा पॉलिटिशियन को खूबसूरत वकील से प्‍यार हो जाता है। बीबी छोड़ी नहीं जाती, ऐसे में वह धर्म बदलता है और शादी के बाद निकाह करता है। निकाह के 40 दिन बाद हरियाणा से अचानक गायब हुए पॉलिटिशियन, लंदन से एसएमएस के जरिए नए जमाने का तकनीकी तलाक दे देते हैं। बेवफाई झेल रहीं मोहतरमा, उन पर रेप, धोखाधड़ी और भावनाओं को आहत करने का मामला पुलिस में दर्ज करा देती है। हां आप सहीं समझ रहे हैं...... ये चांद मोहम्‍मद (चंद्र मोहन ) और फ़ि‍जा (अनुराधा बाली) की कहानी है।
कहानी में यू-टर्न आया हैं, 14 जून को चांद फ़ि‍जा के घर में दिखाई दिया। अब दोनों फि‍र प्‍यार के रास्‍ते पर चलने को तैयार दिखते हैं।हुस्‍न और पैसे के इस गठजोड़ में कई लोगों को चांद का रसूखदार परिवार विलेन लगता है। इस पूरे प्रकरण में चांद ने पब्लिसिटी और खूबसूरत माशूक हासिल की है जबकि बीबी सीमा विश्‍नोई व बच्‍चों सहित पूरे परिवार का भरोसा खोया है। उन्‍हें हरियाणा के उपमुख्‍यमंत्री का पद भी गंवाना पड़ा है। बहरहाल हमें चांद के बहाने कुछ सवाल खुद से पूछने चाहिए। यह जरूरी नहीं कि हर किसी का जवाब एक जैसा हो।

- क्‍या प्‍यार का सार्वजनिक प्रदर्शन जरूरी है।
- आपको सस्‍ती लोकप्रियता चाहिए या जीवन में शांति और खुशी।
- शादी के लिए पैसे, खूबसूरती, ईमानदारी और अच्‍छे इंसान का क्‍या क्रम होना चाहिए।

Friday, June 12, 2009

गौरैया की वापसी


जब हम बच्‍चें थे तो घर के आंगन में एक छोटी सी चिड़िया दाना चुगने आती, अक्सर , घास के तिनके लिए उड़ती-फिरती चिड़िया जैसे घर का हिस्‍सा थी। बड़े उन्‍हें उड़ाते नहीं और हमारी नजर उन पर और उनके घौंसलों पर होती।

मैं
और मेरे भाई ने एक तरकीब लगाकर एक गौरैया ( इंग्लिश में इसे हॉउस बैरो कहते हैं ) पकड़ी थी, फि उसे लाल रंग से रंगकर छोड़ दिया था। मुझे अच्‍छी तरह याद है कि हमारे यहां काम करने वाले राममिलन ने हमें बारी-बारी से उठाकर गौरेया का घौंसला दिखाया था, उसमें काफी छोटे चितकबरे रंग के अंडे थे। उनमें से निकले बच्‍चों को भी बाद में देखा था हमने।

वक्‍त बदला, सीमेंट ने मिट्टी की जगह ले ली, फ्लैट के दौर में आंग
बेमानी हो गए, घरों के करीब पेड़-पौधे बेहद कम हो गए। जिससे गौरैया के घरौंदे सिमटने लगे, ऐसा समय आया कि गौरैया दिखना ही बंद हो गई। शहरों के साथ गांवों में भी वह नहीं दिखाई दी, लेकिन जब ऐसा लगने लगा कि वह बीते दिनों की बात हो गई है तो कई साल बाद एक दिन कॉलेज की एक कैंटीन में अच्छी संख्‍या में नजर आई । स्‍टूडेंट्स के बीच वह भी अपना नाश्‍ता करती और उड़ जाती।

अचानक
ही वह कई जगह दिखने लगी, इंदौर की यूनिवर्सिटी कैंटीन से लेकर दिल्‍ली के जामा मस्जिद के आस-पास....हर कहीं। उसने समय के साथ खुद को बदल लिया था, अब कच्‍चें मकानों की बजाय कटीली झाडि़यां उसका घर है। वह हमारे बीच फि रहने आई है, हमारे परिवार में पुराने सदस्‍य का स्‍वागत है।
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Thursday, June 11, 2009

सिर्फ प्रतिभा से नहीं मिलती सफलता

सचिन तेंदुलकर और विनोद कांबली के गुरू रामाकांत आचरेकर ने एक बार कहा था कि विनोद, सचिन से ज्यादा प्रतिभाशाली है, लेकिन उसमें अनुशासन की कमी है। शराबनोशी और गैरजिम्मेजदार रवैए के कारण कांबली का करियर सचिन की तुलना में काफी छोटा है। सचिन विवादों से हमेशा दूर रहे क्योंकि मैदान के साथ उनकें जीवन में भी अनुशासन रहा।

शोएब अख्तर, शेन वार्न या फिएंडूयू साइमंड किसी भी मैच को पलटने का माद्दा रखते हैं। इसके बावजूद शोएब को टी-20 विश्वकप के पहले ही पाकिस्तान वापस भेज दिया गया, शेन वार्न का वैवाहिक जीवन बिखर गया है और एंडूयू साइमंड का क्रिकेट करियर खत्मे होने की कगार पर है। क्रिकेट के अलावा भी कई उदाहरण हैं।


शास्त्री संगीत का एक बडा नाम है कुमार गंधर्व। मध्‍य प्रदेश में देवास घराने के मुकल शिवपुत्र जो कि स्‍व. कुमार गंर्धव के बेटे हैं, हाल ही में भोपाल के एक मंदिर में भीख मांगते हुए पहचान लिए गए। जिसके बाद उनकी खोज हुई, फिलहाल प्रदेश सरकार ने उन्हेंद ख्‍़याल गायकी के एक संस्‍थान के साथ जोड़ा है। उन्‍हें ख्‍़याल गायकी में महारथ हासिल है, वे फक्‍कड़ और नशे के आदी रहे हैं। उनसे जुड़ा एक वाकया है- अशोक बाजपेयी ने उन्‍हें एक कार्यक्रम पेश करने दिल्ली बुलाया। वे स्टेज पर पहुंचे लेकिन मूड होने के कारण मुकुल बिना गाए वापस स्‍टेज से नीचें गए। इस शो की बाकायदा टिकट बिकी थी, बाजपेयी साहब की किरकिरी हो गई।

सफलता सिर्फ प्रतिभा होने से नहीं मिलती, उसके लिए अनुशासन भी जरूरी है। यह बात हर कहीं लागू होती है चाहे वह खेल का मैदान हो या जि़दंगी का स्‍टेज या फि कोई कॉरपोरेट ऑफि‍स ।
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बस यूं ही

सीधे कानों तक पहुंचती है परिंदों की आवाज़,
मेरे गांव में आवाजें शोर में खोती नहीं हैं।

तुमकों शिद्दत से महसूस किया है,
जैसी ठंडी हवा ने मुझको छुआ है। क्‍यों जाती हो मेरे ख्‍़वाबों में,
जब तुम्हारें भाई ने मना किया है।

मैं बेकाम हूं तो सियासत से बचा हूं,
यहां हर काम में सियासत होती है।
हुनर तो ठीक है...हुस्‍न है...
कौम क्‍या है, किस गुट से ताल्लु है तुम्हारा।

तस्वीर से बुझती नहीं तलब तेरी,
तू रूबरू आए तो करार आए।

कुछ चीजें कभी नहीं बदलती हैं

अकसर हम मजाक में कहते हैं कि कुछ चीजें कभी नहीं बदलती हैं जैसे- बोरोलीन, मां का प्या और मैं। हालांकिहमारे आसपास चीजें तेजी से बदलती हैं। शाहरुख खान की प्यारभरी, सपनों वाली प्रेमकहानी से रियलस्टिक देव-डी का जमाना गया। अब साईकिल टकराने से हीरो-हिरोइन के बीच प्या़र नहीं होता।

दिवाली के पटाखे, आवाज से ज्याबदा रंगभरी आतिशबाजी वाले हो गए। बेफ्रिकी की जगह जिम्मेदारी ने ले ली, सभ्यता को बहाव देने वाली नदियों का पानी सूख गया। इसके बावजूद कुछ चीजें नहीं बदली हैं.....घर छोडते वक्तमां की आंख में आंसू, बचपन के दोस्तों का भरोसा, बदला है, बदलेगा। बच्चों की मासूमियत, बारिश के बाद हरियाली का आना पहले जैसा ही है।

घर की बनी स्वेटर की जगह बाज़ार के कपडों ने ले ली है, पर उम्र बढने के बावजूद ठंड में उसे पहनने पर बड़ों से पड़ने वाली डांट में कोई बदलाव नहीं है। बोरोलीन बदल गई, मैं भी बदल गया, पर मां का प्या़र वैसा ही है।

तुम्हारी बहुत याद आती है।।

हर बात के बाद कुछ सवाल सा, जैसे- मैं वहां जा रिया था, क्या भिया वो काला अपन से तेज चल रिया था, क्या आप शहर में नए हैं तो समझने में देर लगेगी, ये सवाल पक्‍के इंदौरी की आदत का हिस्सा हैं और कुछ नहीं। इंदौरी का वज़ूद इंदौर से है, जिसके एक हिस्से में नौ लाख पेड़ होने से उसका नाम नौलखा पडा। अब इस शहर में सूखे जैसे हालात हैं। आइए शहर को करीब से देखते हैं।

यहां हर काम आराम से होता है, देर से उठना, देर से दुकानों का खुलना। सुबह का पसंदीदा नाश्‍ता पोहा-जलेबी है, पोहा तो आपको यहां 24 घंटे मिल जाएगा। इंदौरियों को खाने-पीने और फिल्‍में देखने का बड़ा शौक है। दाल-बाटी, कचौरी से लेकर बटर चिकन चाव से निपटाया जाते हैं। पीने में भी अच्छें हैं इंदौरी, इसलिए टैंकर भी निकनेम होता है यहां। इस शहर में टॉकिज में विशेष टिप्‍पणी करने में बालकनी वाले भी पीछे नहीं रहते।

सहीं उच्चारण का प्रशिक्षण देने वाले जितेंद्र रामप्रकाश ने यहां की हिंदी को बोलने के तरीके की तारीफ में कहाकि मात्राओं में इंदौरियों के हाथ तंग होता हैं। उन्हों नें उदाहरण देते हुए कहा था- मेच में केफ ने केच कर लिया।

यह शहर गर्लफ्रेंड की तरह है इससे प्यार हो जाता है, साथ छोडने का मन नहीं करता। दूर रहने पर याद आतीहै, गले लगाने का मन करता है इसे। कभी रूठता है, मस्ती करता है, कई बार दिल भी तोड़ देता है, फि भी इस पर प्यार आता है। इसकी गोद में सिर रखकर सोने से नींद सुकूनभरी आती है, इंदौर तुम्हारी बहुत याद आती है। ‍‍

Sunday, May 3, 2009

कप्ता्नी में कच्चे

नेतृत्‍व के लिए मैक्‍कुलम को परिपक्‍वता की जरूरत

गलतियां कैसे की जाती है और उसे दोहराया कैसे जाता है, कोलकाता नाइट राइडर टीम के कप्‍तान मैक्‍कुलम को देखकर ये दोनों चीजें समझी जा सकती है। राजस्‍थान रॉयल्‍स से हुए मैच के सुपर ओवर में अंजता मेंडिस को गेंद देने की बात हो या रॉयल चैलेंजर्स के खिलाफ आखिरी और अहम ओवर में क्रिस गेल को गेंदबाजी थमाना, जाहिर करता है कि न्‍यूजीलैंड का यह विकेट कीपर बल्‍लेबाज नौसिखिया कप्‍तान है।

दरअसल पिछले आईपीएल में उनके द्वारा खेली गई शतकीय पारी के बाद लोगों की उनसे उम्‍मीदें बढ गई, ब्रैंडन मैक्‍कुलम इस दबाव को संभाल पाने में नकाम रहे। मैक्‍कुलम का आईपीएल सीजन-टू में बल्‍लेबाजी औसत 8 रन प्रति मैच से भी कम है, इस कारण उन्‍हे कहना पडा कि टीम सेमीफाइनल में नहीं पहुंचती है तो वे कप्‍तानी छोड देंगे।

प्रेरित करने में नाकाम- बेहतर कप्‍तान वह होता है जो आगे रहकर लीड करें जिससे टीम के बाकी खिलाडियों को प्रोत्‍साहन मिल सके। मुंबई के खिलाफ वे काफी बाद में बल्‍लेबाजी करने आए, मैक्‍कुलम किंग्‍स इलेवन पंजाब के खिलाफ ओपनिंग में उतरे लेकिन जब वे आउट हुए तो रन से खेली गई गई गेंदों की संख्‍या अधिक थी, टी-20 में इस तरह की बल्‍लेबाजी के लिए कोई जगह नहीं है। वे अपनी टीम को प्रेरित करने में नाकाम रहे हैं, उनके प्रदर्शन से यह बात की साबित हो गई कि अच्‍छे खिलाडी अकसर अच्‍छे कप्‍तान साबित नहीं होते।

Saturday, May 2, 2009

गर्मी की सुनहरी यादें

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