जब हम बच्चें थे तो घर के आंगन में एक छोटी सी चिड़िया दाना चुगने आती, अक्सर , घास के तिनके लिए उड़ती-फिरती चिड़िया जैसे घर का हिस्सा थी। बड़े उन्हें उड़ाते नहीं और हमारी नजर उन पर और उनके घौंसलों पर होती।

मैं और मेरे भाई ने एक तरकीब लगाकर एक गौरैया ( इंग्लिश में इसे हॉउस बैरो कहते हैं ) पकड़ी थी, फिर उसे लाल रंग से रंगकर छोड़ दिया था। मुझे अच्छी तरह याद है कि हमारे यहां काम करने वाले राममिलन ने हमें बारी-बारी से उठाकर गौरेया का घौंसला दिखाया था, उसमें काफी छोटे चितकबरे रंग के अंडे थे। उनमें से निकले बच्चों को भी बाद में देखा था हमने।
वक्त बदला, सीमेंट ने मिट्टी की जगह ले ली, फ्लैट के दौर में आंगन बेमानी हो गए, घरों के करीब पेड़-पौधे बेहद कम हो गए। जिससे गौरैया के घरौंदे सिमटने लगे, ऐसा समय आया कि गौरैया दिखना ही बंद हो गई। शहरों के साथ गांवों में भी वह नहीं दिखाई दी, लेकिन जब ऐसा लगने लगा कि वह बीते दिनों की बात हो गई है तो कई साल बाद एक दिन कॉलेज की एक कैंटीन में अच्छी संख्या में नजर आई । स्टूडेंट्स के बीच वह भी अपना नाश्ता करती और उड़ जाती।
अचानक ही वह कई जगह दिखने लगी, इंदौर की यूनिवर्सिटी कैंटीन से लेकर दिल्ली के जामा मस्जिद के आस-पास....हर कहीं। उसने समय के साथ खुद को बदल लिया था, अब कच्चें मकानों की बजाय कटीली झाडि़यां उसका घर है। वह हमारे बीच फिर रहने आई है, हमारे परिवार में पुराने सदस्य का स्वागत है।
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