Friday, March 16, 2012
अपनों पे सितम।
रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी को पार्टी लाइन से ऊपर उठकर रेलवे की हालत बेहतर करने की कोशिश करना भारी पड़ गया, उनका मंत्री पद छिन जाएगा। हरीश रावत 40 सालों से कांग्रेस के लिए काम करते आए लेकिन अच्छे वक्त में पार्टी ने उत्तराखंड की कमान उन्हें नहीं सौंपी, रावत बगावत पर उतरे लेकिन पार्टी अनुशासन के डंडे के सामने जल्द ही उनके तेवर ठंडे पड़ गए। एक तीसरी कहानी बिलासपुर के एसपी राहुल शर्मा की है, जो नक्सलियों से बहादुरी से लड़े और आखिर अपनी ही संस्था से हार गए, शर्मा ने खुदकुशी कर ली, सुसाइड नोट में शर्मा ने लिखा कि सीनियर्स के दवाब की वजह से उन्होंने खुदकुशी कर ली।
इन तीनों परिस्थितयों में व्यक्ति को उनकी ही संस्था ने हरा दिया क्योंकि वो अपनी संस्था के दायरों को लांघकर, कुछ अलग और बेहतर करना चाहते थे। रावत का मामला थोड़ा स्वार्थी लग सकता है लेकिन हकीकत ये है कि बहुमत उनके साथ था, फिर भी पार्टी ने किसी और की ताजपोशी कर दी। वहीं दिनेश त्रिवेदी इस धर्मसंकट में थे कि पार्टी की लाइन पर चलें या देश और रेलवे की बेहतरी के लिए एक साहसी बजट पेश करें। वोट की ख़ातिर उन्होंने जनता को कोई लॉलीपॉप नहीं दिया, लच्छेदार बातें नहीं की, सीधे-साधे ढ़ंग से अपनी बात रखी। थोड़ा किराया बढ़ाने से पीछे नहीं हटे और सुरक्षा पर ख़ास तव्वज़ो दी।
त्रिवेदी एक ऐसे रेलमंत्री हैं जिन्हें मंत्रालय जाने से पहले कानपुर के पास मालवा में हुए रेल हादसे की जगह पर जाना पड़ा। सदन में त्रिवेदी ने बताया था कि उस रात उन्हें नींद नहीं आई, वो रेलवे में सुरक्षा को लेकर गंभीर थे और बदलाव लाना चाहते थे। उनका हाल भी लेफ्ट के सम्मानित नेता सोमनाथ दा जैसा होगा, जिन्हें पार्टी का हुक्म न मानने और अपनी अंतरआत्मा की आवाज़ सुनने का खामियाजा भुगतना पड़ा। बिलासपुर के एसपी राहुल शर्मा ने दंतेवाड़ा में नक्सलियों के दांत खट्टे कर दिए लेकिन संस्था के दवाब में ऐसे बिखरे कि जीने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाए।
एक विचारधारा बेहद प्रचलित है कि व्यक्ति संस्था से होता है, संस्था व्यक्ति से नहीं, लेकिन इस सवाल का जवाब कौन देगा कि संस्था को कौन बनाता है, क्या पार्टी या संस्था के सिद्धांत, देशहित से ऊपर हैं, क्या जो चलता आया है उसे बदला ना जाए और क्या अच्छा करने के लिए अपने तरीके से काम करना गुनाह है?
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