बारिश में भीगे हुए उसे अरसा हो गया
इंटरनेट में डूबा रहता है वो
उसे उतना ही आता है
जितना गूगल को ....
चैटिंग, कट, कॉपी, पेस्ट
पर करता है समय वेस्ट
शाम को रात बनते देखना भूल गया वो
उसे उतना ही आता है, जितना गूगल को...
खुद हो जाता है बीमार
पर कम्प्यूटर में एंटीवायरस हमेशा तैयार
खाना कई बार कर देता है डिलिट
और इंटर होते रहते है पोस्ट ब्लॉग पर
नेटियाने का गुरूमंत्र उससे ले लो
उसे उतना ही आता है, जितना गूगल को
Thursday, September 3, 2009
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4 comments:
आखिरी लाईन सुकून दे गई वरना हम समझे..हमें लपेट गये. :)
इसमे कविता का अंश बहुत थोडा है, इसे खालिस बनाया जा सकता था यह एक इन्टरनेट का मेल बन कर रह गया है ... तुमने कविता को बहुत हलके से लिया है दोस्त ... इसमे सिर्फ़ तीन पंक्तिया अच्छी है वो कौन सी है तुम्हे पता है ... इन तीन पंक्तियों से कुछ और मूड बनाया जा सकता था, यह सब इसलिए भी कि तुम्हारे अंदर यह नही है में तुम से कुछ और अपेक्षा करता हूँ ... इस बार माफी ।
बहुत खुब भाई, अपना भी यही हाल है,। सुन्दर
v nice...
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