भड़क सकती है शक्कर, हिंदी अख़बार नवभारत के व्यापार पेज पर यह हेडिंग पढ़ा। भाव तेज होने पर मीठीशक्कर भड़क सकती है, यह सोचा न था। इस बात के बहाने कुछ पुराने दिन याद आ गए। एक सुबह अख़बार केऑफिस में स्पोर्ट्स डेस्क के सबएडिटर को संपादक की डांट पड़ रही थी, उसने हेडिंग में रौंदा शब्द का इस्तेमालकिया था- फलां टीम ने फलां टीम को रौंदा। ऐसा लगा जैसे हारी टीम पर जीत गई टीम ने बुलडोजर चला दिया हो।
एक और शब्द बेहद प्रचलित है काला दिन, कहीं कोई बुरी घटना हो तो इसे चिपका दो। कुछ बुरा हुआ है तो इसमेंशुक्रवार, गुरूवार का क्या दोष। मध्यप्रदेश से निकलने वाले अख़बार राजएक्सप्रेस में अवधेश बजाज ग्रुप एडिटरथे। सुबह मीटिंग में काम तय होने के साथ दूसरे अखबारों से तुलना और समीक्षा होती। अकसर कई चापलूस अपनेअख़बार की तारीफ करने के लिए पीट दिया, पछाड़ दिया बोलने लग जाते। उन पर चुटकी लेते बजाज जी ने एकदिन बताया कि भोपाल में एक शख़्स मीटिंग में कहते हैं, साहब.....आज अख़बार खड़ा हो गया। मैं आज तक समझनहीं पाया कि अखबार खड़ा कैसे होता है.....फिर कुछ देर ठहाके लगते। हालांकि खड़ा शब्द कहीं मायने भी रखता है, इसी अख़बार के भोपाल संस्करण में देवेश कल्याणी थे, वे रात को सेंट्रल डेस्क के लोगों में जोश भर देते। एक रातराहुल द्रविड़ की ख़बर देख उनकी आंखों में चमक आई, अपने चिरपरिचित अंदाज में चुटकी बजाते बोले.....ढ़ाईसेंटीमीटर द्रविड़ चाहिए, जल्दी लाओं और उसे दाई ओर खड़ा करो। वहां उनका आशय फोटो को वर्टिकल लगाने सेथा। दूसरे दिन अख़बार खड़ा (माफ कीजिएगा) भी हो गया।
कला संस्कृति पर लिखने वाले अरविंद अग्निहोत्री किसी बुजुर्ग कलाकार के बीमार होने पर पूरा पेज तैयार करलेते, बिस्मिल्लाह खान की मृत्यु के एक महीने पहले ही उन्होंनें उन पर पेज तैयार कर लिया गया था। ख़बरों केकाम में शब्द बड़े मायने रखते हैं.... अमर उजाला के लखनऊ संस्करण में लीड (मुख्य ख़बर ) को बुलबुला कहतेहैं। वहां बुलबुला तैयार करना, एक जुमला है। इसके शाब्दिक अर्थ में जाए तो मीडिया की हालिया स्थिति समझीजा सकती है बुलबुले की तरह ख़बरों में हवा भरी होती है, इसी की तरह अधिकतर ख़बरों की उम्र बेहद कम है।न्यूज चैनल में भी पीस टू कैमरा (ख़बर के आखिर में रिपोर्टर जब पिक्चर में आता है) में आपने कई बार सुनाहोगा, आने वाला समय ही बताएगा कि ऊंट किस करवट बैठेगा या क्या होगा ये तो समय ही बताएगा, समय सबबता ही देगा तो मैं चैनल क्यों देख रहा हूं।
Wednesday, July 29, 2009
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6 comments:
बेहद मज़ेदार और रोमांचक लगा
interesting
रोचक लेखन!
गौरव, बहुत ही सटीक बात है अखबारों के हालातो के बारे में और मै जानता भी हूँ की तुम जानते हो की यह सब क्या हो रहा है तुमने समय भी beetaayaa है अखबारों मै इसलिए shabdon की इस baajigaree को तुम बेहतर जानते हो, baharhaal तुमने बहुत अच्छा likhaa है , एक सटीक aalekh है , kaalaa दिन , akhbaar का khadaa honaa आदि kaa अच्छा prabhav है , एक नए किस्म की बात नजर आयी तुम्हारे इस aalekh मै जो pahale kabhee नही dekhi .... badhhai... moksha।
best story
Witty,, nice one
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